आज ग्राम देवता लक्ष्मी माता मंदिर के सम्मुख उदासिबाबा की समाधी है | महाराष्ट्र में अहमदनगर जनपद संतो की पावन भूमि के रूप में जनि तथा पूजी जाती है | नेवासा तहसील के आँचल तथा प्रवर नदी के पवित्र जल से यहाँ अनेक तीर्थस्थल है, और इन तीर्थो में अनेक संत-महंत हुए है | श्री क्षेत्र शिंगणापुर के विकास में विपुल लोगों का तथा संतो का योगदान है; लेकिन इनमें प्रमुख हैं आचार्य उदासी बाबा !
प्रस्तुत तीर्थक्षेत्र को साफ़-सुथरा रखने के लिए तथा देवस्थान की पवित्रता हेतु प्रारंभ में सभी शिंगणापुर ग्रामवासियों का विपुल योगदान रहा | लेकिन ग्रामास्तो के आलावा कुछेक इक्के-दुक्के लोग रहे, जिन्होंने स्वच्छता हेतु अपना जीवन ही श्री शनैश्वर देवता के लिए समर्पित किया | उनमे शीर्षस्थ रहे -उदासी बाबा |
आचार्य उदासी बाबा पर अलोक
श्री क्षेत्र शनि शिंगणापुर ,में शनिदेव की कृपा से अपनी घर गृहस्ती में विफल लोगों का जमावड़ा हुआ करता है | इसी प्रकार के समस्याग्रस्त एक सज्जन वहाँ रहे; जो बालयोगी सन्यासी थे | ये बालयोगी सन्यासी ही उदासी बाबा कहलाए जाते है | नेवासा तहसील के गोंदेगाव के ये उदासी बाबा श्री शनिदेवता साडेसाती से ग्रस्त थे | उनकी राशि में शनिग्रह साडे सात वर्ष था | विप्पति में फसे बालयोगी सन्यासी, अपनी दिनचर्या से उब गए थे | रहत के रूप में उन्होंने पदयात्रा प्रारंभ की थी , प्रस्तुत भ्रमणयात्रा में ही वे शिंगणापुर पधारे | या आप यु कहे की शनिदेव को उनकी सेवा मंजूर थी, अतः उन्हें बुलाकर, आकर्षित कर शनिदेव ने ही उन्हें विपत्ति में डालकर चुम्बकीय शक्ति के अधर पर उनसे सेवा हासिल की |
संकटग्रस्त बालयोगी उदासी जी ने तन-मन से श्री शनि भगवान की सेवा की और वे शनि भगवन की आज्ञा से शिंगणापुर के बाशिंदे हो गए थे | श्रीमान उदासी जी बाबा का पशुओं पर बहुत प्यार था; फलस्वरूप उन्होंने एक गाय, उसका बच्च्डा तथा मवेत वर्णी बैल को पाल रखा था | इन पालतू जानवरों पर वे, जैसे एक माँ अपने बच्चो पर प्यार करती है; लालन पालन करती है; वैसे ही इन प्राणियों पर अपने बच्चों सामान निहाल हो जाते थे | कहते है की उनकी सेवा देखकर हे मेवा के रूप में साढ़ेसाती के समाप्ति पर कृपवंत श्री शनि भगवन नें उन्हें शिंगनापुर में ही, उन्ही के पास में रहने की आज्ञा की और वे यही शनिदेव का कृपाप्रसाद प्राप्त करते रहे | श्री उदासी बाबा रातदिन शनिदेव की पूजा-अर्चा, दीप,नैवाद्य, आरती, प्रार्थना में व्यस्त रहते थे |
उदासी उपाधि कैसे मिली?
आचार्य उदासी बाबा की यह निरंतर उपासना, त्याग, समर्पण की भावना देखकर ही ग्रामवासियों ने उन्होंने देवस्था के पुजारी बनकर रहने की करबद्ध प्रार्थना की | प्रार्थना को शायद श्री शनिदेव की ही आज्ञा समजकर सहर्ष स्वीकृति प्रधान की | श्री शनिदेव के पुजारी बनने के बाद ही वे बालयोगी सन्यासी से ‘उदासी बाबा’ नाम धारण कर प्रसिद्द हो गए |
आचार्य उदासी बाबा ने असक्त होकर शनिदेव की दिलसे सेवा की, और अच्ताज की बात यह है की उनकी प्रस्तुत कर्मठता को देखकर ही शिंगणापुर के पास पडौस ग्रामो में शनिदेव की महत्ता दूर दूर तक फैली | अतः लोग पैदल या वाहनों से दर्शन के लिए आते रहे | सर्व प्रकार शनि शिंगणापुर बहुचर्चित होकर उसकी सुकीर्ति दूरतक फैलने लगी | फलस्वरूप लोगों की अपार भीड़ यहाँ इक्कठा होने लगी थी | मुझे सबसे बड़ी बात उदासी बाबा में यह लगी की उन्होंने आनेवाले श्रद्धालुओं कें लिए अनेक सुविधाएँ उपलब्ध करा दी | बाबा के दिल में शनिदेव के साथ-साथ उनके शराद्धालुओ के लिए भी हमदर्दी राहत थी’ समर्पण की भावना थी, देवस्थान का कारोबार उन्होंने उचित रखा तथा ठीक से देखा | सभी ग्रामवासी उनके कामकाज पर प्रस्सन रहे | आचार्य उदासी बाबा ने लगभग पैंतीस वर्ष श्री शनि भगवान की तन-मन से सेवा की | वृद्धावास्ता में अत्यल्प बीमारी से वे स्वर्ग को प्यारे हुए | उनकी मृत्यु से सारे ग्राम में दुःख खी लहर च गयी | पूरा ग्राम वेदना सागर में डूब गया | कहते है की बाबा के देहांत के पश्चात बैल न दो दिन तक कुछ खाया, न पिया | अचरज की बात तो यह है की तिन दिनों तक बैल के आंख से निरंतर आंसू बहते रहे | उनकी समाधी तो बनाई; साथ में बड़ा तैल चित्र लगाया गया है | और अब एक मूर्ति बनवाकर यहाँ लगाई है | ऐसे थे शनिदेव समर्पित एक महँ योगी उदासी बाबा ! नमोस्तुते !!