श्री क्षेत्र शिंगणापुर से नेवासा तहसील में स्थित प्रस्तुत देवालय लगभग २३ कि.मी. दुरी पर है | श्री मोहिनीराज में दुनियाँ का जी वनसुत्र अंतर्भ्रुत है | परम पुनित प्रवरा के तट पर बसा नेवासा शहर वारकरी उपाख्य भागवत धर्म का आध्यात्मिक पीठ है | नेवासा क्षेत्र के मध्य में श्री विष्णु देव का मोहिनी रूप धारी बहुत सुंदर वह देवालय है ; जो हेमाडपंथी वास्तुशैली निर्मित उत्कृष्ट मंदिर है | मोहिनीराज के आवास स्थान के कारण ही नेवासा यह प्रचलित नामाभिमान रहा है | हिनुस्तान में श्री विष्णुदेव का मोहिनीराज के रूप में यह एक मात्र मंदिर है | मूर्ति स्वंयभू अर्ध नर नारी नटेश्वर कि है | प्रस्तुत मंदिर को सन १७७३ में चंद्रचूड जहागीरदारों ने बढ़ाया है | बीच में प्रस्तुत मंदिर पर मोगलों ने हमला किया था | फलस्वरूप मूर्ति प्रवरा नदी में डाली गयी थी | एक रात भगवान का दृष्टांत हुआ, फिर नदी में से इस मूर्ति को पुनश्च निकाल कर प्राणप्रतिष्ठा की गयी | यहाँ माघ वाद प्रतिपदा के षष्ठी से एक वार्षिक उत्सव मेला लगता है | मंदिर में अनेक सुंदर चित्रकृति विविध रूपों में विष्णुदेव की अभिव्यक्ति है |
मोहिनीराज मंदिर का धार्मिक इतिहास भागवत पुराण में इस प्रकार प्राप्त है जैसे :
” जेथे चोरुनी घेता अमृत ग्रासा | निवटिला राहूचा घसा ||
तया कदंबावारी म्हाळसा | वास नेवासा पै केला || ”
उपयुक्त मराठी दोहा में देव-दानव समुद्र मंथन का प्रसंग वर्णित है | इस प्रकार कथा है कि, ‘ देव दानव के समुद्र मंथन में जो चौदह रत्न बाहर निकले उसमें अमृत भी था | अमृत किसे दे इसे लेकर कश्मकश हुआ | उसमें राहु दानव अमृत लेने निकला उसके प्रस्तुत व्यवहार से क्षुब्ध होकर विष्णु देव ने मोहिनी का रूप लेकर सुदर्शन चक्र से उसका शिरच्छेद किया प्रस्तुत वाकया सी स्थानपर हुवा | अत: मोहिनीराज मंदिर यहाँ बरकरार है | पंढरपुर से प्राप्त दस्तावेज़ में म्हळसादेवी उल्लेख ही मोहिनी रूप के संदर्भ में मिलता है | ( श्री खरे , चार दैवत, पृष्ठ क्र. १३३ ) आन्हिक सुत्रावली के १४९ पृष्ठ पर यह उलेख्ख पुनश्च मिलता है :
प्रवरातीर निवसीनी निगम प्रतिपदा |
पारावार विरहिणी नारायणी हदे ||
प्रस्तुत देवी की यह विशेषता है कि महाराष्ट्र के अनेक जाती, धर्म , समाज के लोगों कि यह कुलदेवता है |